गीत , वाद्य और नृत्य ये तीनो मिलाकर ‘संगीत’ कहलाते हैं। संगीत में भी ऐसे शब्द जो किसी विशेष ज्ञान के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होते है , उन्हें सांगीतिक पारिभाषिक शब्द या शब्दावलियाँ कहते हैं।
संगीत
* ‘ संगीत ‘शब्द ‘ गीत ‘ शब्द में ‘सम ‘ उपसर्ग लगाने से बना है। ‘ सम ‘ अर्थात सहित और ‘ गीत ‘ अर्थात ‘ गान। ‘ गान के सहित अर्थात अंगभूत क्रियाओं ( नृत्य ) व वादन के साथ कीया हुआ कार्य ‘ संगीत ‘ कहलाता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में संगीत से आशय केवल गायन से समझा जाता है , किन्तु संगीतशास्त्र में गायन , वादन और नृत्य तीनो विधाओं को सामूहिक रूप से संगीत कहते हैं। इस प्रकार के मुख्य रूप से तीन अंग गायन , वादन एवं नृत्य है।
* पं. शारंगदेव द्वारा लिखित संगीत रत्नाकर में कहा गया है ”गीत वाद्य तथा नृत्यं त्रयं संगीत मुच्यते ” अर्थात गाना , बजाना तथा नृत्य इन तीनो का सम्मिलित रूप संगीत कहलाता है।
* पश्चिमी देशों में संगीत से आशय केवल गायन और वादन से समजा जाता है। वहाँ नृत्य को संगीत के अंतर्गत नहीं रखा जाता है।
* गायन , वासन और नृत्य का एक – दूसरे से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। ये तीनो विधाएँ एक – दूसरे की पूरक मानी जाती है। परन्तु इन तीनो विधाओं का स्वतंत्र रूप से भी प्रदर्शन किया जा सकता है।
* नृत्य से पारिभाषिक आशय है कि गाते – बजाते समय भाव – प्रदर्शन के लिए थोड़ा बहुत हाथ चलाना , गाते समय मुखाकृत बनाना अर्थात शरीर की भाव – भगिमाएँ आदि नृत्य के अंतर्गत आते हैं।
* संगीत रत्नाकर में कहा गया है कि नृत्य , वादन पर और वादन , गायन पर आश्रित है।
नृत्य विद्यानुगं प्रोक्त वाद्यगीतानुवर्चित ‘
अतः इन तीनो में गायन सर्वश्रेष्ठ होता है।
* संगीत की परिभाषा इस प्राकर दी जा सकती है ” संगीत वह ललित कला है , जिसमे स्वर और लय के दुरा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं। .”
* संगीत के संदर्भ में याज्ञवल्क्य जी कहते है ” संगीत एक प्रकार का योग है इसकी विशेषता है कि इसमें साड़ी और साधन दोनों ही सुखरूप है। अतः संगीत एक उपासना है , जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। ”
सामान्यतः स्वर और लय के द्वारा अपने भावों को प्रकट करने से संगीत की रचना होती है। संगीत को एक ललित कला माना जाता है।
ललित कला के अंतर्गत पाँच प्रकार की कलाएँ आती है – संगीत , ( कविता ) , काव्य , चित्रकला , मूर्तिकला एवं ( वास्तुकला ) स्थापत्य कला।
इन ललित कलाओं में संगीत को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। कला का माध्यम बदलते ही कला का नाम भी बदल जाता है।
* भारतीय संगीत के इतिहास में संगीत का संबंध देवी – देवताओं से माना गया है। माना जाता है कि सर्वप्रथम ब्रम्हा ने देवी सरस्वती को संगीत शीक्षा दी तथा माँ सरस्वती ने नारद को संगीत शीक्षा दी। इसके बाद नारद ने भरत ने अपने नाट्यशास्त्र द्वारा जान – साधारण में संगीत का प्रचार किया।
भारतीय संगीत में कितने प्रकार के संगीत पद्धतियों का प्रचार है ?
भारतीय संगीत में दो प्रकार के संगीत का प्रचार है , जिन्हे संगीत पद्धतियाँ कहते हैं और इन्हे निम्न नाम दिए हैं
( 1 ) उत्तरी संगीत पद्धति – उत्तरी संगीत पद्धति को हिदुस्तानि संहित पद्धति ‘ भी कहा जाता है। यह पद्धति उत्तरी हिदुस्तान में बंगाल , बिहार , ओडिशा , उत्तर प्रदेश , हरियाणा , पंजाब , गुजरात , जम्मू – कश्मीर तथा महाराष्ट्र आदि प्रांतों में प्रचलित है।
( 2 ) दाक्षिणी संगीत पद्धति – इसे ‘कर्नाटक संगीत पद्धति ‘ भी कहा जाता है। यह संगीत पद्धति दक्षिण भारत में जैसे – तमिलनाडु , मैसूर , आंध्र प्रदेश आदि प्रदेशों में प्रचलित है। ये दोनों संगीत पद्धतियाँ एक – दूसरे से भिन्न होते हुए भी कुछ समानताएँ रखती है।
संगीत के कितने रूप हैं ?
किसी भी कला में , कला के मुख्य दो रूप होते हैं – क्रिया तथा शास्त्र। क्रियात्मक रूप के अंतर्गत उसकी साधना विधि और शास्त्र रूप के अंतर्गत उसका इतिहास तथा पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या आदि आती है।
( 1 )क्रियात्मक रूप – क्रियात्मक रूप संगीत का वह रूप है , जिसमे हम कानो द्वारा सुनते हैं अथवा नेत्रों दुरा देखते हैं। नाचना , गाना और बजाना क्रियात्मक संगीत के अंतर्गत आते हैं।
संगीत का प्रयोगिक ( क्रियात्मक पक्ष ) बहुत मत्वपूर्ण होता है। जिसमे आलाप , आलाप ताने , राग आध्जारित विभिन्न गीतों के प्रकार ( सरगम , ख्याल ,लक्षण गीत ) , ताने , गत , मींड , घसीट , झाला , रेला , टुकड़ा आमद ,परन आदि की साधना आती है।
( 2 ) शास्त्र रूप – शास्त्र रूप में संगीत संबंधी विषयो का अध्ययन करते है इसके दो प्रकार हैं ‘क्रियात्मक शास्त्र ‘ और ‘ शुद्ध शास्त्र ‘
( i ) क्रियात्मक शास्त्र – में क्रियात्मक संगीत का अध्ययन आता है। क्रियात्मक शास्त्र में रागों का परिचय , गीत की स्वर – लिपि लिखना , तान – आलाप , मिलते – जुलते रागों की तुलना , टुकड़ा एवं रेला आदि शामिल हैं। शास्त्र पक्ष से क्रियात्मक संगीत में बड़ी सहायता मिलती है।
( ii ) शुद्ध शास्त्र – के अंतर्गत संगीत , नाद , जाती ,आरोह – अवरोह , स्वर , लय , मात्रा ,ताल खाली आदि की परिभाषा , प्रमुख संगीत शास्त्र एवं संगीत का इतिहास आदि का अध्ययन आता है।
भारतीय संगीत के प्रकार –
भारतीय संगीत को सामान्यत: 3 भागों में बाँटा जा सकता है:
शास्त्रीय संगीत – इसको मार्ग भी कहते हैं।
उपशास्त्रीय संगीत
सुगम संगीत
भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख पद्धतियां हैं –
हिन्दुस्तानी संगीत – जो उत्तर भारत में प्रचलित हुआ।
कर्नाटक संगीत – जो दक्षिण भारत में प्रचलित हुआ।
हिन्दुस्तानी संगीत मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मन्दिरों में। इसी कारण दक्षिण भारतीय कृतियों में भक्ति रस अधिक मिलता है और हिन्दुस्तानी संगीत में श्रृंगार रस।
उपशास्त्रीय संगीत में ठुमरी, टप्पा, होरी, कजरी आदि आते हैं।
सुगम संगीत जनसाधारण में प्रचलित है जैसे –
भजन
भारतीय फ़िल्म संगीत
ग़ज़ल
भारतीय पॉप संगीत
लोक संगीत
संगीत के प्रकार
शास्त्रीय संगीत में समय का महत्व
शास्त्रीय संगीत में समय का महत्व
राग परिचय
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समयानुसार गायन प्रस्तुत करने की पद्धति है, तथा उत्तर भारतीय संगीत-पद्धति में रागों के गायन-वादन के विषय में समय का सिध्दांत प्राचीन काल से ही चला आ रहा है, जिसे हमारे प्राचीन पंडितों ने दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम भाग दिन के बारह बजे से रात्रि के बारह बजे तक और दूसरा रात्रि के बारह बजे से दिन के बारह बजे तक माना गया है। इसमें प्रथम भाग को पूर्व भाग और दुसरे को उत्तर भाग कहा जाता है। इन भागों में जिन रागों का प्रयोग होता है, उन्हें सांगीतिक भाषा में “पूर्वांगवादी राग” और “उत्तरांगवादी राग” भी कहते है। जिन रागों का वादी स्वर जब सप्तक के पूर्वांग अर्थात
संगीत के विभिन्न प्रकार – भारतीय संगीत में संगीत के मुख्यतः दो प्रकार मने गए है।
(1) शास्त्रीय संगीत
(2) भाव संगीत संगीत के प्रकार
संगीत में मुख्या दो प्रकार होते है –
(1) शास्त्रीय संगीत
(2) भाव संगीत।
(1) शास्त्रीय संगीत –
आसान भाषा में शास्त्रीय संगीत उसे कहते है जिसमे नियमित शास्त्र होता जिसमे कुछ विशेष नियमो क पालन करना आवश्यक होता है।
उदाहरण के लिए हमे शास्त्रीय संगीत के रागो में कुछ विशेष नियमो का पालन करना पड़ता है।
राग के नियमो का पालन न करने से राग हानि होती है।
(2) भाव संगीत
भाव संगीत को लाइट म्यूजिक भी कहते है।
भाव संगीत में शास्त्रीय संगीत के सामान न कोई बंधन होता है और न ही की नियमित शास्त्र होता है।
भाव संगीत का मात्र एक उद्देश्य होता है कानो को अच्छा लगना।
अतः इसमें कोई बंधन नहीं होता हम चाहे जिस स्वर का प्रयोग करे जिस ताल जिस ले में गए जब अलाप तान ले बस कानो को सुनने में अच्छा लगे।
भाव संगीत की रंजकता (मधुरता) बढ़ाने के लिए कभ कभी शास्त्रीय संगीत का सहर लिया जाता है।
भाव संगीत को मुख्यतः तीन हगो में विभाजित किया जा सकता है
(1) चित्रपट संगीत
(2) लोक संगीत
(3) भजन – गीत आदि।
(1) चित्रपट संगीत
फिल्मो में जो गाने प्रयोग किये जाते है उसे हम चित्रपट संगीत कहते है।
“झनक झनक मोरी बाजे पायलिया” पूर्णतः शास्त्रीय शैली होते हुए भी इसे हम चित्रपट संगीत में गिनते है क्युकी इनका प्रयोग फिल्म में किया गया है.
साधारण फिल्मो के गीतों की कुछ निजी विशेस्ता होती है जैसे उसमे तरह तरह के वाद्यों का प्रयोग होता है ध्वनि रिकॉर्ड करने से पहले उसको सजाया जाता है। इन्ही करने से साधारण जनता फ़िल्मी गीतों सुन्ना ज्यादा पसंद करते है।
(2)लोक गीत ( Lokgeet )
यह मुख्यतः क्षेत्रीय या ग्रामीणों का गीत है। इन गीतों में सैकड़ो वर्षो से चले आये रीति रिवाजो की झलक मिलती है। इसके अंतर्गत शादी व विभिन्न संस्कारो में गए जाने बाले गीत है।
अधिकतर लोग गीत के साथ ढोलक बजायी जाती है।
इनके कुछ नाम भी हियते है जैसे – चैती, कजरी, दादरा, इत्यादि।
(3)भजन गीत आदि (Bhajan Geet)
जिन गीतों में ईश्वर का गुड़ गान या प्रार्थना की जाती उसे हम भजन कहते है।
जिन कविताओं को स्वर वद्ध तरीके से गया जाता उनको गीत कहते है।
इन गीतों भी कोई बंधन नहीं होता , अधिकतर ये दादरा कहरवा ताल में होते है।